Sunday, 17 December 2017

हीर-राँझा

प्रेम तुमसे है 
मुझे कुछ कुछ
हीर-राँझा सा ही ,
अदृश्य अपरिभाषित
अकल्पित है सीमायें 
इसकी कैसा ये आकर्षण 
जो विकर्षण की हर सीमा 
तक जाकर भी तोड़ आता है  
दूरियों की सभी बेड़ियाँ ;
और समाहित कर देता है 
मुझे तुझमे कुछ ऐसे की 
सोचता हु तुम्हे अब पुकारू 
मैं भी हीर बोल कर 

No comments:

स्पर्शों

तेरे अनुप्राणित स्पर्शों में मेरा समस्त अस्तित्व विलीन-सा है, ये उद्भूत भावधाराएँ अब तेरी अंक-शरण ही अभयी प्रवीण-सा है। ~डाॅ सियाराम 'प...