Saturday, 29 April 2017

पलट के देखूँ







क़दम अब भी 
उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए
तब से खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है
पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है
मोड़ मुड़ जा
अंदर एहसास हो रहा है
खुले दरीचे के पीछे
दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में
वो भी जागती है
कहीं तो उस के
दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ.
पढ़ लेना ख़ामोशी को
धीरे से छु लेना साँसे
कुछ ख्वाइशें किस
कदर मासूम होती है !!

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