Friday, 6 April 2018

एक हमसफ़र


एक हमसफ़र---------------

कब तक तुम यु ही 
दुनयावी दिखावे के लिए 
मेरी चाहतों की ग्रीवा 
को दबाये रखोगी 
कंही ऐसा ना हो की 
की भूलवश तुम्हारे 
हाथों के दवाब से मेरी 
वो चाहते दम तोड़ दे 
फिर ना कहना जब तुम्हारा 
ये निसकलंक यौवन मेरी   
चाहतों की मौत का वज़न 
उठाकर चलते हुए ज़िन्दगी 
की राह पर भटक कंही 
और पराश्रय ले ले  

No comments:

स्पर्शों

तेरे अनुप्राणित स्पर्शों में मेरा समस्त अस्तित्व विलीन-सा है, ये उद्भूत भावधाराएँ अब तेरी अंक-शरण ही अभयी प्रवीण-सा है। ~डाॅ सियाराम 'प...