Thursday, 5 April 2018

विरह की तड़प























विरह की तड़प
------------------

गर चाहो समझना 
कभी विरह की तड़प 
को महसूसना तो  
देखना सूखे पत्तों की 
फड़फड़ाहट तुम्हे सुनाई देंगी 
उनकी बेचैनी वो सूखे पत्ते 
करहाते हुए कहते है 
अपने विरह की कहानी 
दर्द होता है सुनते ही 
उनकी कराहटें मन होता है 
उन्हें फिर से रोप दू उसी 
पेड़ में जंहा से अलग हुए 
होंगे वो और ये सोचते हुए
रुक जाता हु मैं भी एक जगह  
की कई बार मौसम भी 
ठहर जाता है भूलकर   
अपनी नियति और उस 
नियति से छेड़छाड़ गवारा 
ना होगा उसे शायद उसी 
तरह नहीं तड़पना चाहती  
मैं भी उन पत्तो की तरह 
तुमसे अलग होकर 

No comments:

स्पर्शों

तेरे अनुप्राणित स्पर्शों में मेरा समस्त अस्तित्व विलीन-सा है, ये उद्भूत भावधाराएँ अब तेरी अंक-शरण ही अभयी प्रवीण-सा है। ~डाॅ सियाराम 'प...