Friday, 5 July 2019

तुम्हारा एहसास !


तुम्हारे जाने के बाद भी उस कमरे के , 
एक कोने में बैठकर मैं निहारता रहा था ;   

यूँ ही पूरा का पूरा कमरा जहां चारों ओर ,
अस्त व्यस्त सी तुम बिखरी हुई पड़ी थी ;

उस हेंगर पर भी जंहा तुमने आकर अपनी , 
साड़ी टांगी थी उस चादर की सिलवटों में भी थी ; 

और सोफे पर भी थी तुम जंहा बैठकर तुमने ,
साथ मेरे अपने पसंद की अदरक वाली चाय पी थी ; 
  
पूरा कमरा तुम्हारी सौंधी-सौंधी महक में अब भी ठीक , 
वैसे ही महक रहा था जैसे वो तुम्हारे आने पर महका था ; 

मैं चाहता था तुम्हे सलीके से समेट कर केवल अपने ,
जेहन में रखना पर तुम इस कदर महक रही थी ;

कि मैं चाहकर भी नहीं समेट पाया था तुम्हे और ,
तुम्हे यूँ ही हमेशा-हमेशा के लिए वहां रहने दिया था ; 

आज जब तुम नहीं हो साथ मेरे तब भी वो कमरा ,
मुझे वहां तुम्हारे होने का एहसास कराता रहता है ;
  
अब मैं चाहता हूँ तुम उस कमरे की ही तरह मेरे ,   
जेहन में काबिज़ रहो जैसे उस कमरे में रहती थी !

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